No poem this time. Just a few lines...
ये भीड़, ये चका-चौंध, ये गाड़ियों का शोर,
अब अजनबी नही लगते.
गर इनमे इंसान और उसके सपनो की अहमियत ना खोई होती,
तो बात और होती..
शुक्रिया कहूँ, या इल्ज़ाम दूँ तुम्हे,
की तुम हर दम साथ थी मेरे,
और मैं तुम्हारे साथ को हर पल तरसता रहा.
जश्न मे लोगों को झूमते हुए देखा,
अपनी नही, दूसरो की कामयाबी पे,
खुद को भूलते हुए देखा...
जो खुद की जीत भी मीठी नही लगती,
तो इसमे कसूर तो मेरा ही है..
कभी शौक था मोटे उपन्यास पढ़ने का,
जो सिमट गया कहानियों तक.
शौक और सिमटा तो कहानियाँ भी सताने लगी,
और दायरा सिमटा कविताओं तक.
दोष दुनिया का मानूं, शौक का,
या अपने नाकारेपन को इल्ज़ाम दूँ,
जो अब मुझे सिर्फ़ पंक्तियाँ सुहाती हैं.
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